भारतीय संस्कृति – पुनरुत्थान
- ranvirsinghgulia
- Mar 6, 2021
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संस्कृत से संस्कृति, संस्कृत से संस्कार
संस्कृत खो गई, खो गए संस्कृति संस्कार
लक्ष्य हो ज्ञान वर्धन
वर्धन के साथ संवर्धन
फिर होता है मूल्य सृजन
ज्ञान से उत्पन्न हस्त कला व कौशल
बिन मूल्य हो जाते हैं निष्फल
मूल्यों की जनक संस्कृति
मूल्यों की निधि संस्कृति
वर्धन संवर्धन के निश्चित आयाम
उपयोग आधारित वैदिक नाम
विस्तृत विधि है वर्णाश्रम संस्कृति में
विकृत कर दिया जिसे जाति में
ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य संस्कृति में
बहु संख्यक वर्ण को माना संस्कृति विहीन
जन्म से हो गए मानव उच्च व हीन
कलुषित हो गई संस्कृति की पहली परिभाषा
और स्वभाव बन गई एक विकृत व्याख्या
जानने रहस्यों को
वेदों की विषयवस्तु को
स्वयं को और सृष्टि को
कल्पित किया पुराण विधि को
उदित किया गीता ज्ञान को
शुचि आधार बनाया हर कौशल को
कर्म बिना निष्फल हर फल को
जन्म दियाअध्यात्म संस्कृति को
पर नकार दिया उपवेदों को
वेद के वैज्ञानिक भागों को
बल दिया कपोल कल्पना को
प्रतिक्रिया हुई नास्तिकता में
बौद्ध जैन धर्म मानसिकता में
फ़ैल गई दावानल की भांति
बौद्ध धर्म की ख्याति
उदित हुई एक नयी संस्कृति
भाग थी जो अध्यात्म की
पर विकृत किया अध्यात्म को भी
महिमा मंडित इतनी हुई विकृति
हत्या हो गई विज्ञान लक्ष्य की
बदल दिया अन्धविश्वास में पुरुषार्थ को
विकसित किया आडम्बरों को
जन्म दिया मंदिर संस्कृति को
रोम रोम में जो बस चुकी
जीवन रेखा है राजनीति की
कल्पना करना
उसे नाम देना
विश्वास करने लगना उपस्थिति में
ऐसा ही निहित है मानव प्रवृत्ति में
अनुवाद उदित भारतीय संस्कृति में
भारत एक भू भाग था
असंख्य इकाई में था बंटा हुआ
भारतीय कोई नहीं था कहता
अनेक मतान्तरों का उद्गम था
कोई बौद्ध था कोई जैन था
भारतीय नाम का ही अभाव था
आज भारत एक राजनीतिक इकाई है
फिर भी वही पुरानी लड़ाई है
बस भारतीय नाम की दुहाई है
आक्रमणकारी नहीं जानते थे भारत को
कहते थे इसे हिन्द और हिन्दू हमको
मान लिया हमने हिन्दू अपने को
धर्म से और जाति से
धर्म जुड़ गया संस्कृति से
मत मतान्तरों की जन्म दात्री
मत आधारित हुई संस्कृति
कौशल हुए लुप्त पनपने लगी धर्मान्धता
संकुचित हुई विचारों की विशालता
इंडियन कल्चर को जन्म दिया शासक ने
अनुवाद किया हमने भारतीय संस्कृति में
विदेशी शासकों ने लाद दी
अपनी अपनी संस्कृति
जो केवल धर्म सीमा में ही बंधी थी
हमने अपना ली वेश भूषा भाषा
राजनीति शिक्षा न्याय व अर्थ व्यवस्था
भ्रमित रहते हैं यह कह कर
काल्पनिक संस्कृति की आड़ लेकर
चलन है हमारा अनेकता में एकता
विषम की स्वीकारिता
भूल जाते हैं यह भी
दास न होते यदि एकता होती
दास को चुनने की आज़ादी नहीं होती
दास की कोई संस्कृति नहीं होती
आत्म सम्मान भुला देती है दासता
नकल करती है केवल दास मानसिकता
धर्म,भाषा,जाति व स्थान के नाम पर
हर युग में उदय हुई एक विकृति
प्रथा बनी जो, नाम दिया उसे संस्कृति
तो कौनसी भारतीय संस्कृति का अभिम्मान
जिसका करूँ मैं पुनरुत्थान
बस एक नारा है
एक राजनीतिक छलावा है
हर दल का सहारा है
अपनी अपनी परिभाषा है
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