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चलती फिरती लाश

एक युग था एक प्रथा थी

नई पीढ़ी आसीन होती थी

पुरानी वरदान देती थी

दोनों प्रतीक्षा करती थी

सुन्दर को सुन्दरतर बनाने की

सम्मान था शेष जीवन जीने में

अरमान था आनंद से विदा कहने में


धूमिल हो गई प्रथा


हुआ जन्म अहंकार का

वरदान नहीं चाहिए था

प्रश्न बना अधिकार का

भाग हूँ एक विस्मृत प्रथा का

हूँ अब एक चलती फिरती लाश


रहता हूँ निशि दिन जिसके साथ

वह भी है एक लाश


चलती फिरती नहीं है

बोलती भी नहीं है

बस मुस्कुराती है

और साँस लेती है

छलनी हुआ था मन

कटु शब्दों की जलन

प्रकृति भी हुई आहत

लिया अंक में झटपट

अपनी सुन्दरतम रचना को

नष्ट किया उसके शब्दज्ञान को

बस छोड़ दिया मुस्कान को

जीवन की आस ने

हमें बदल दिया है लाशों में


घिर गए हैं हम लाशों से

जो शाश्वत समझते थे जीवन

कटु वचनों से छलनी कर मन

जो नहीं जानती

अब यह भी

खुद लाश बन गई हैं वे

हमें लाश बनाते बनाते

मूल्य व्यर्थ हैं उनके लिए

केवल स्वार्थ चाहिए

जिन्हें जीने के लिए



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