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आज फिर

  • ranvirsinghgulia
  • May 11, 2021
  • 1 min read

आज फिर देखा था

तुम्हें चलते हुए

आज फिर देखा था

तुम्हें बोलते हुए

मिटटी का आंगन था

मिटटी का घर था

पर नया था

मिटटी के कमरे थे

जिनमें बैठे थे

कुछ अपने से लगते थे

पर सब अनजान थे

हाथ हमने थामे थे

कसके एक दूसरे के

द्वार के बाद द्वार

कर रहे थे पार

दीवारें महक रही थी

तुम चहक रही थी

मान लिया सपना था

घर भी सपनों का था

ऐसा ही घर बनाएँगे

जीवन अर्थ बताएंगे

सपने देखेंगे हर बार

सपने करेंगे साकार

अब बस यहीं रहेंगे कच्चे घरों में

कुछ जम से जाते हैं पक्के घरों में

 
 
 

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